July 27, 2024
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Ram mandir विग्रह में प्राण प्रतिष्ठा का महत्व भी समझिए

ललित निबंध-नर्मदा प्रसाद उपाध्याय
राम तो सदैव जीवंत हैं. हरेक के जीवन स्पंदन हैं तब उनके विग्रह में प्राण की प्रतिष्ठा का निहितार्थ क्या है?यह शास्त्र से,पोथी से,तर्क और विमर्श से समझ में नहीं आता और इन सबसे वह विशाल जनमेदनी भी नहीं समझना चाहती जो अपनी आंखों के कलशों से अपने राम के दिव्य स्वरूप को अपनी जलांजलि अर्पित करने को तत्पर है.
आज आस्था के कांसे से बना कोई भी नयन कलश रिक्त नहीं है,सूखा नहीं है और सच कहें तो इस निर्मल आस्था को उससे जुड़े तर्कों और औचित्यों से भी कोई लेना देना नहीं बल्कि ये उसे अपने और अपने राम के बीच बाधा लगते हैं।यह जन आस्था इनकी अनदेखी ही नहीं करती ,इनका उपहास भी करती है. जन आस्था का यह वैराट्य राम को सदियों से उनके उसी रूप में देखता,समझता आया है जिसे इस आस्था भाव ने स्वयं रचा है और इस रचाव की विरासत उसे वाल्मीकि और तुलसी से मिली है. सैकड़ों रामायण रची गईं,ऐसी भी जिनमें राम और सीता के आचरण ही बदल दिए गए लेकिन लोक ने उन्हें नहीं स्वीकारा. उसकी निधि तो वाल्मीकि और तुलसी के ही राम हैं और उन्हें ही रहना भी है।तुलसी को, यह जन आस्था अधिक निकट पाती है इसलिए कि उनकी भाषा और भाव उसे समझ में आते हैं। वाल्मीकि के राम तुलसी के राम हैं।वाल्मीकि ने उतना वर्णन राम के जन्म और बाल्यकाल का नहीं किया जितना तुलसी ने किया.
मानस के बालकाण्ड में तुलसी वह समय और राम के प्रकट होने के समय के वातावरण से अवगत कराते हैं, चैत्र मास की नवमी तिथि , शुक्ल पक्ष, अभिजित मुहूर्त और ऐसा समय जो लोक की विश्रांति का समय है और वातावरण भी ऐसा कि जिसमें फूले हुए वन हैं,पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे हैं और सारी नदियों में अमृत बह रहा है, “बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा, सवहिं सकल, सरितामृत धारा।“
ब्रम्हा इसी अवसर को चुनते हैं,देवता उत्सव मनाने लगते हैं और कौशल्या हितकारी राम का अवतरण हो जाता है,
“भए प्रकट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी।”
लेकिन कौशल्या की विनती है कि वे यह ईश्वरीय रूप त्याग दें,बालक बन जाएं तब तुलसी लिखते हैं,
“सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना,हुई बालक सुरभूपा”
राम के आगमन का दशरथ जिस भाव से स्वागत कर रहे हैं वही भाव आज इस जन मेदनी का है,
“जाकर नाम सुनत सुभ होई।मोर घर आवा सब सोई”
जिनका नाम सुनने से से ही शुभ होता है वही प्रभु मेरे घर आए हैं. यह शुभ अकेले दशरथ का नहीं है सबका है ,इसलिए कि यह सुनने से जुड़ा है और सुन लेने पर किसी का कोई प्रतिबंध नहीं.
मंगल गान होते हैं अवधपुरी में,उत्सव विराम नहीं लेता ,यह अयोध्या अपने आराध्य से मिलने चली आई है,सूरज समझ कर सकुचाती है लेकिन फिर ललाई से भरपूर सांझ का अनुमान कर लेती है. लगता है अगर की धूप का धुआं,इस संध्या का अंधकार है और महलों के मणियों के समूह तारों के समूह हैं. यह सब देख सूरज अपनी चाल भूल गए और वहीं वे एक दिन के स्थान पर एक माह रुक गए.
दिन बीते सभी भाइयों का नामकरण हुआ. राम और लक्ष्मण की श्याम गौर जोड़ी बनी,इतनी मनोहर कि उन्हें देखकर माताएं तृण तोड़ती हैं अर्थात उनकी नजर उतारती हैं,
” स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननी तृण तोरी “
इनमें अनुपम हैं राम जिनके हृदय में कृपा का चंद्रमा विराजता है।उन्हें पालने में लिटाकर मां प्यारे ललना कह कर उन्हें दुलारती हैं,
“कबहूं उछंग कबहूँ कर पलना।मातु दुलारई कहि प्रिय ललना “
यह लाला भाव अदभुत है।इसीलिए वे अयोध्या में रामलला हैं।
तुलसी विस्तार से राम की सुसंगत देह का बखान करते नहीं अघाते।कहते हैं उनके मेघ श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है और जो लाल लाल पांव हैं उनमें सफेद नख ऐसे हैं जैसे लाल कमल दल पर मोती स्थिर हो गए हों।नूपुर की ध्वनि ऐसी कि मुनीगण रीझ जाते हैं,पेट की त्रिवलि,विशाल भुजाएं,शंख सी ग्रीवा ,लाल ओंठ,सुंदर कान और फिर माता जब घुँघराले बाल संवार देती हैं तो वे अयोध्या के नयनों की अभिराम निधि हो जाते हैं।
राम के इसी बाल रूप का, लला हुए स्वरूप के अभिनंदन का ,उनकी आराधना का उत्सव पूरे संसार में वह हर आस्थावान मना रहा है जिसके लिए राम ,अभिराम हैं,अविराम हैं.
जयशंकर प्रसाद इन्हीं राम और तुलसी की वंदना करते हैं,
अखिल विश्व में रमा हुआ है राम हमारा
सकल चराचर जिसका क्रीड़ापूर्ण पसारा
इस शुभ सत्ता को जिसने अनुभूत किया था
मानवता को सदय राम का रूप दिया था.
जयशंकर प्रसाद तो राम के अदभुत स्वरूप को वर्णित करते नहीं अघाते और वे ही क्यों गुप्तजी के” साकेत ” से निराला की “राम की शक्ति पूजा “तक और रामविलास शर्मा के तुलसी के सौंदर्य शास्त्र और नामवर जी की गरीब निवाजू तक की व्याख्या तक में राम की व्यंजना उतर आई है।विद्यानिवासजी की “ रामायण का काव्य मर्म” और कुबेरजी के “रामायण महातीर्थम” में राम आखर आखर में अवतरित हो गए हैं.
राम वास्तव में दर्शन के नहीं उन दृश्यों के विषय हैं जिन्हें सदियों से इस महादेश की आस्था रचती आई है और यह आस्था केवल किसी जाति विशेष की नहीं है। यह अवश्य है कि यह आस्था एक धर्म विशेष के लोगों की बहुलता में है लेकिन वह इतनी उदार है कि वह कण कण में राम का उदघोष करती है.
राम दर्शन से कहां समझ में आएंगे? वे तो दृश्य से समझ में आते हैं जिनमें छल की संभावना प्राय:नहीं होती।शब्द की छलना से दूर राम उन रूपाकारों में प्रत्यक्ष होते हैं जिन्हें यह विश्वास सदियों से रचता आया है. दक्षिण भारत की भव्य मंदिर सरिणी में विराजे राम के विग्रह हों,रामदरबार की झांकी हो,उत्तरभारत के मूर्ति शिल्प हों,भित्तिचित्र, लघुचित्र, पटचित्र और स्थानीय स्तर की कलमकारी हो,पीतल के पुरातन और नवीन शिल्प हों या सुदूर चंबा में बनाए जाने वाले हस्त निर्मित चंबा रूमाल इन सबमें आस्था से जन्मे राम की सदियों से उपस्थिति है. राम के इसी प्रेरक और मनोहारी चरित्र के कारण पूरे मध्यकाल में रामायण के सबसे सुंदर अंकन साहिबदीन मेवाड़ कलम में करते हैं और सबसे सुंदर शिल्प वे गढ़ते हैं जिन्हें मूर्ति पूजा की मनाही है.
यही सर्वसमावेशी राम आज अपने बाल रूप में अयोध्या में आ रहे हैं, कौशल्या के ललना का आगमन हो रहा है जो अपनी जातीय स्मृति में उसे सदियों से सहेजती आई है, मंदिर का पुन: नव निर्माण हुआ है,एक अंकुर दोबारा अंखुआया है, पुनर्नवा होने की बेला आई है, ऊषा ने अपना आंचल पसार दिया है एक बाल सूर्य उदित हुआ है. यही निहितार्थ है श्रीराम के पाषाणी विग्रह में प्राण प्रतिष्ठा का। राम के विग्रह में प्राण प्रतिष्ठा नहीं हो रही है ,इस निर्मल आस्था की देह में प्राणों की प्रतिष्ठा के लिए राम तत्पर हुए हैं और यह जन आस्था यह समझ कर विभोर है कि राम की प्राण प्रतिष्ठा हो रही है,उसके राम उसके झोपड़े में आ गए हैं. यहां सदियों से चली आ रही इस आस्था के सृजन के उदाहरण हैं,शिल्प के विशेष रूप से,इन्हें पहिले प्रस्तुत नहीं किया गया है. विलक्षण है यह आस्था एक अंकन में राधावल्लभ लाल धनुर्धर रघुनाथ बन गए हैं। वृंदावन में विराजी एक छवि को बृज संस्कृति शोध संस्थान के संचालक श्री लक्ष्मीनारायण तिवारीजी ने भेजा है. वे राम रागिनी बन गए हैं, एक अंकन अठारहवीं सदी की बाहु में बनी उस शांग्री रामायण का भी नजर आता है जो विश्व में बेजोड़ है,जिसमें वाल्मीकि अपने शिष्य भारद्वाज को राम कथा सुना रहे हैं.